एकला चलो रे..!

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सोमवार, 16 नवंबर 2009

नायक नेपथ्य में चला जा रहा था-- गाँधी और मै: सुशील यादव


[देखिये ना गाँधी किन-किन के लिए क्या-क्या हैं .इसतरहा है महामना गाँधी की व्यापकता..सुशील जी गहरे सरोकारों के लेखक हैं. इनकी कुछ बेहतर रचनाएँ "हम तो कागज मुड़े हुए हैं" पर जाकर पढ़ी जा सकती हैं..श्रीश पाठक ]
घर में खादी के व्यवसाय के चलते, गांधीजी की फ़ोटो झाड़ते-पोछते बड़ा हुआ.तब गांधी मेरे लिये मेरे बाबा की तरह दिखने वाले एक बाबा ही थे--गंजा सिर, चश्मा, धोती, लाठी, घड़ी....और कुछ था तो ये कि अपने स्कूल मे(शिशु मन्दिर) मे हर महापुरुषों की भांति गांधी जी की जयंती मनायी जाती थी. तथाकथित मेधावी छात्र की हैसियत से मै भी उस जयंती मे गांधी पर भाषण देता. आदरणीय प्रधानाचार्य-मुख्यअतिथी महोदय से प्रारंभ होने वाला भाषण कब जय हिन्द-जय भारत के साथ खतम हो जाता पता ही नही चलता. सब कुछ रटा-रटाया; पर ये तो गांधी को जानना था ही नही..!
ऐसे ही घर पे, गाँधी जयन्ती का मतलब आज से दूकान पर छूट शुरू हो जाएगी. दूकान पर झंडी-पतंगी लगाने का काम मेरा. दूकान सज जाती थी, घर में खुशी रहती थी कि अगले तीन-चार महीनों तक दुकान 'अच्छी' चलने वाली है.
फिर हाईस्कूल, इंटरमीडीएट में तो यह सब भी छूटा, बोर्ड परीक्षा का भय, फर्स्ट डीविजन की चुनौती बाकी बचा तो क्रिकेट और प्रेमिका की तलाश...
अध्ययन, जीवन और उम्र की गंभीरता बढ़ने के साथ गाँधी को पढ़ने का मौका मिला. बचपन के उन भाषणों के रटे-रटाये शब्द 'सत्य', 'अहिंसा', 'स्वराज', 'सत्याग्रह' अब जादू लगने लगे. कई ऐसे मौकों भी आते जब बस, ट्रेन, चाय की दुकान पर यही सुनता था कि--'गन्हिया देस बेच दिहिस...' खुद मै भी कभी-कभी शामिल हो जाता था. पर अब नहीं. शायद इसलिए कि किसी बहस में 'आ बैल मुझे मार..' वाली साबित होतीं. क्लास, प्रोफेसर्स के लेक्चर्स, सेमिनार आदि से ज्यादा अच्छी तरह गाँधी का परिचय कराया मुझे कॉलिन्स और लैपियर की पुस्तक 'फ्रीडम एट मिडनाईट' ने..
सार रूप में कहूं तो गाँधी "दैनिक भास्कर' के उस स्लोगन के बिलकुल सटीक बैठते हैं--"जिद करो दुनिया बदलो.." इसके बाद ये कि-'जितना भारत को गाँधी --जानते थे उतना कोई अन्य नही; सिर्फ भारत को ही क्यों, ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों को, उनके भीतर छिपे अप्रगट मंतव्य को, तभी तो भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के शतरंज के खेल में गाँधी अंग्रेजों की चाल पहले भांप जाते थे..! और चेक एंड मेट का करिश्मा तभी संभव हो सका. लेकिन आजादी जितनी करीब आती जा रही थी गाँधी उतने ही हाशिये पर, यह एक दुखांत नाटक की पटकथा थी...कि नायक नेपथ्य में चला जा रहा था.
राम, कृष्ण,बुद्ध को तो मैंने नहीं देखा..खैर गाँधी को भी नही लेकिन फिर भी गांधीजी को छोड़ शेष तीनों के जीवन की कुछ कथाएं तो गढ़ी-गढ़ायीं व कोमिक्स की भांति लगती हैं. बहुत संभव है कि आने वाली गाँधी को भी एक मिथक के रूप में ही मानने लगे.
अंत में--यदि मै गढ़ूं कोई गाँधी-स्मृति भवन या कुछ ऐसा ही तो परिचयात्मक वाक्यांशों में ये शब्दावलियाँ होगी--स्वीकार का धैर्य, अस्वीकार का साहस, जिद और सदाग्रह...
                                                          सुशील यादव 
       {लेखक दिल्ली विश्वविध्यालय से हिंदी विषय में शोधरत हैं और सदाग्रह के सम्पादकीय समूह से सम्बद्ध हैं} 
(चित्र साभार:गूगल)

6 टिप्‍पणियां:

Amrendra Nath Tripathi ने कहा…

अच्छा समझा आपने गाँधी को ---''... -स्वीकार
का धैर्य, अस्वीकार का साहस, जिद और
सदाग्रह...'' | शुरुआत से एक बच्चा किस तरह
गाँधी को समाज से ग्रहण करता है और एक
जटिल उधेड़बुन का अनुभव करता है ;आपने
इसका सुन्दर उद्घाटन किया है |
अच्छी प्रस्तुति का शुक्रिया ...

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

जैसा की मैंने पहले भी कहा कि मैं भी एक ज़माने में गांधी जी का कट्टर भक्त था, उस नायक के प्रति मन में श्रदा आज भी बहुत है, लेकिन जीवन की राह पर आगे बढ़ते हुए बहुत सी सच्चियां भी वक्त की ठोकरों से पता चली ! मई वैसे तो यादव साहब से पूरी तरह सहमत हूँ मगर साथ ही यह भी कहूंगा कि गांधी जी के हाशिये पर आने के कुछ कारण भी थे ! गांधी जी जिस चीज के लिए पहचाने जाते थे, जीएवन के आख़िरी काल में उन्होंने जल्दी में उन सिदान्तो को अपनाने और लागू करने में बहुत सी जल्दवाजी भी की थी !

निर्मला कपिला ने कहा…

सही कहा आपने आने वाली पीढियाँ शायद ही विश्वास करें कि गाँधी ही भारत की आज़ादी के प्रणेता और नायक थे। बहुत सुन्दर आलेख है शुभकामनायें

abhinaw ने कहा…

achchha laga. lekha isake liye bhi badhai

मनोज कुमार ने कहा…

मैं आपके विचार से सहमत हूं। मैं अपनी तरफ से कोइ विचार नहीं दे सकता, क्योंकि मैं अपने को उस लायक नहीं समझता कि गांधी जी के ऊपर अलग से विचार बना लूं। और गांधी जी का स्वरूप इतना विराट है कि यह जन्म तो उनके बारे में पढ़ते ही बीत जाएगा। मैं तो बस इतना ही जान पाया हूं कि अगर इस देश के इतिहस से सिर्फ उनका योगदान हटा दें तो शायद हम आज भी पराधीन ही होते।
कुछ कवियों की पंक्तियां देना चाहूंगा --

चल पड़े जिधर दो पग डगमग, चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गयी जिधर भी एक दृष्टि, गड़ गये कोटि दृग उसी ओर।
पं. सोहन लाल द्विवेदी की ये पंक्तियां उस महापुरुष को समर्पित हैं जिन्होंने सारे विश्‍व को एक नयी दिशा दी।
“बापू के प्रति” अपने उद्गार प्रकट करते हुए कविवर सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है :-
“तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल
हे चिर पुराण, हे चिर नवीन।
सुख भोग खोजने आते सब,
आये तुम करने सत्य खोज,
जग की मिट्टी के पुतले जन,
तुम आत्मा के, मन के मनोज”।

उन जैसे महामानव के बारे में जितना भी कहा जाए कम है। रामधारी सिंह दिनकर की पंक्तियां यहां स्मरण हो रहें हैं :-
“तू कालोदधि का महास्तम्भ, आत्मा के नभ का तुंग-केतु,
वापू! तू मर्त्य, अमर्त्य, स्वर्ग, पृथ्वी, भू, नभ का महासेतु।
तेरा विराट यह रूप कल्पना पट पर नहीं समाता है,
जितना कुछ कहूं मगर कहने को शेष बहुत रह जाता है।”
महा कवि पंत ने कहा था
तुम मांसहीन, तुम रक्त हीन, हे अस्थिशेष! तुम अस्थिहीऩ,
तुम शुद्ध बुद्ध आत्मा केवल, हे चिर पुरान हे चिर नवीन !
तुम पूर्ण इकाई जीवन की, जिसमें असार भव-शून्य लीन,
आधार अमर, होगी जिस पर, भावी संस्कृति समासीन।
ठीक ही कहा था लॉर्ड माउंट बेटन ने,
“सारा संसार उनके जीवित रहने से सम्पन्न था और उनके निधन से वह दरिद्र हो गया।”

सदाग्रह शांति सद्भावना के लिए... ने कहा…

आदरणीय मनोज जी आपकी टिप्पणी संग्रहणीय है. 'सदाग्रह' आपसे रचनात्मक सहयोग की अपेक्षा रखता है.